जैसे पिघल गया हो लावा
शीर्षक-जैसे पिघल गया हो लावा
असीमित है तू,
मैं तेरी सीमित परिधि।
तुझ में निहित मेरा प्रेम,
तेरे प्रीत में नित नई वृद्धि।
नीलकंठ सा तू विषधारी,
मैं विरह की पीती हूँ हाला।
तू निर्जन कानन का जोगी,
शलभ के प्रीत की मैं ज्वाला।
तू है प्यारा मधुप स्वछंद,
मैं पुष्प की हूँ मकरंद।
तेरी प्रतीक्षा में विकल नयन,
तू करता इत उत विचरण।
मैं तृषा से आकुल रमणी,
तू मय की है मधुशाला।
लोचन से ऐसे नीर बहे,
जैसे पिघल गया हो लावा।
रीमा सिन्हा(लखनऊ)
स्वरचित