आज युद्ध की आहूती में बारी मेघनाद की आई थी

आज युद्ध की आहूती में बारी मेघनाद की आई थी
मारूँगा या मर जाऊँगा सौगंध पिता   की खाई थी
हाहाकार मचा रणभूमी  मे जब रणभूमी में कूद पड़ा
जो जो सम्मुख लड़ने आते दिखता सबको काल खड़ा

अहंकार था भरे हुए वह वीर नही किंचित कम था
सब शस्त्रों का ज्ञाता था चकाचौंध करता तम था
जिस जिस पर थी द्रष्टी जाती सब वानर डर जाते निकुम्बला वरदान मिला था जिससे इन्द्रदेव घबराते थे

शिव त्रिशूल को पाने खातिर रहा पैरो में एक खड़ा
वाणी में मेघनाद का गर्जन था मेघनाद था नाम पड़ा
ब्रम्हा को भी कर प्रसन्न वह घीर ब्रम्हास्त भी धारा था
वंदी बनी रावण जब इन्द्र लोक में इन्द्रदेव ललकारा था

हरि का भी जो अंतिम अस्त्र चक्र सुदर्शन की भी शक्ती थी नर नारायण का भी आदर करता नही किसी से विरक्ती थी
देवराज को बंदी बना उनके  अहंकार को तोड़ दिया
प्रसन्न हो गये ब्रम्ह देव नाम इन्द्रजीत था जोड़ दिया

लंका के गौरव का उसने ऊँचा अतुलित नाम किया
नारायणी सेना को भी दो दो बार था जीत लिया
मारूती वो बजरंग बली जो सब बंधन से न्यारे थे
अशोक वाटिका में उसके सम्मुख महादेव भी हारे थे

पहले दिन से ही आ युद्ध में कहर गजब का ढाया था
नागपाश में बाँध नारायण गरुण देव बुलवाया था
वो तो मानों नारायण थें जिनका कोई जोड़ नही
नाणपाश से मुक्त वो जाये बना कोई था तोड़ नही

अगले दिन भी कालिका माई उसका ही दंभ भरती थी
शेशनाग का वक्ष चीरने चली तुरीण से बरछी थी
वो लक्ष्मण जो शेश नाग अवतारी थे
वो लक्ष्मण जो शीश धरा के धारी थे
वो लक्ष्मण जो हरि को ह्रदय में धारे थे
वो लक्ष्मण जो प्रभु राम को प्राणों से भी प्यारे थे
वो लक्ष्मण जिससे जनक सभा में परशुराम भी हारे थे
इन्द्रजीत की बरछी का प्रतिकार ना वो भी खोज सके
सम्मान वीर को देने खातिर नारायण के भी थे शीश झुके

समाचार सुन गुप्तचरों से फिर से उसको शोक हुआ
लक्ष्मण को फिर होस आ गया बरछी का नही प्रकोप हुआ
क्या ये ही तो ना नर नारायण उसके मन में शंका थी
लौट ना सका वह वीर क्योंकी लगी दाँव पर लंका थी

लिये पिता का आशीष पुनः बोला युद्ध अंत कर डालूँगा
दोनो भाई के शीष हेतु हर दाव लगा डालूँगा
ब्रह्मा जी एक अजय वरदान उसने पाया था
अब तक के किसी युद्ध में उसे नही अजमाया था
ब्रम्हा जी का अटल वाक्य था गर यज्ञ पूरा कर डालोगे
नर से वो फिर नारायण से विजय श्री तुम्ही डालोगे

लेकिन जिसनें विध्वंस किया उससे ही तुम होरोगे
मान भी लेना पूर्ण हुए दिन परलोक तभी सिधारोगे
लेकिन इस शक्ती का भी काका श्री को भान था
विभिषन का त्याग किया ये लंका का अपमान था
इतिहास गवाह है सुन लो सब जो गद्दारी अपनाते हैं
राम हों या रावण सम्मुख कभी नही पूजे जाते हैं

आज रणभूमी मृत्यु माँग रही एसा उसने जान लिया
फिर भी वह डटा रहा कायरता का नही पान किया
उसनें छोड़ा अंतिम अस्त्र अंत आ गया जान लिया
नारायन से मृत्यू होगी अपनें पर अभिमान किया

पिता का नाहो कद नीचा मान बढ़ाने चला गया
ये तो स्वय ही नारायण हैं ज्ञान कराने चला
लेकिन जब जब पाप कर्म भर जाता है
कितना भी हो प्रकाश पुंज अंधकार नजर आता है
रावण के कटु वचनों से उसने इतना ही जाना
लंका का हरि ही हाँथों से है विनाश ब्रम्हा जी ने है ठाना

लेकिन इन्द्रजीत को मारना इतना नही आसान था
निकुम्बला देवी वा त्रीदेवों का वरदान था
जब शेशनाग अवतारी के उसने हर बाण का प्रतिकार किया
तो लखन लाल नें दे राम सौगंध तुरीण को उस वीर का संहार किया
राम प्रभू तो श्री राम हैं आज्ञा में घर को त्यागा था
पर धन्य धन्य है मेघनाथ प्राण पिता नें माँगा था

उसके मन की पीड़ा ना देखी अंतर युद्ध था मन में छिड़ गया
पुत्र धर्म वा देश धर्म खातिर परम पिता से भिड़ गया
माना जाति के प्रभाव से अहंकार का घूँट पिया
पर वो भी सच्चा भक्त बना तुरीण से प्रभु को जीत लिया
अभिषेक द्विवेदी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *