त्रासदी के अंग ( मेरा सफरनामा )
त्रासदी के अंग ( मेरा सफरनामा )
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लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि आप एक औरत हैं और महिलाओं पर ही ज़्यादा लिखना पसंद करती हैं, परंतु आपके शब्दों में पुरुषों के खिलाफ द्वेष उत्पन्न होता है। जितनी कड़वाहट आप कुरेद कुरेद लिखती हैं, उसका मूल कारण अवश्य होगा। लेखक आत्मसम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और मैं खुद एक लेखिका हूं। इस उम्र में लेखिका बनना उभरता नहीं किंतु कुछ विफल परिस्थियां आपको कलम दिखाए, खुद के आंसू लिखने को कहती है और पास में किसी को न पाकर, आप कलम को अपना सहारा बनाते हैं। मैंने भी वही किया।
मेरा सफरनामा ठाकुर से गौतम, गौतम से गुजराल और गुजराल से फिर गौतम बनने का है, पर पूजा एक नश्वर शरीर में पड़ी, खुद की पहचान अब तक ढूंढ रही है। मैं हिमाचल प्रदेश के कुल्लू में जन्मी हूं। मात्र एक साल की थी जब मेरी माता जी और पिता जी के बीच अलगाव की स्थिति पैदा हुई और वह दोनों अलग हो गए। कारण यहां मैं ही थी क्योंकि कहा जाता है कि उस वक्त ठाकुरों के घर में लड़कियां पैदा नहीं होती थी। इसलिए मैं उनके लिए कलंकित थी, अभिषापित थी। जिसका परिणाम मेरी वजह से मेरी मां को झेलना पड़ा। मेरी मां सरकारी ओहदे पर कुल्लू में कार्यरत थी। मेरे पालन पोषण के लिए मुझे मेरी नानी के पास मंडी भेज दिया गया। छोटी थी तो बहुत रोती थी, मेरे मामा को पसंद नहीं आता था मेरा रोना और वो अक्सर कहते थे, ये अबशगुनी है, इसे कहीं जंगल में छोड़ आओ। खैर, मैं जैसे कैसे 3 साल की हुई, तो सबको यही लगा कि मेरी मां जवान है उन्हें दूसरी शादी कर लेनी चाहिए, जिससे उन्हें मुझे पालने की सिरदर्दी खत्म हो और मुझे एक परिवार मिल जाए। हिमाचल में जन्मी पूजा का दिल्ली में जाने की टिकट निकल रही थी।
कुल्लू से मंडी और मंडी से दिल्ली का सफर अब यहां से शुरू होता है। यानि अब पूजा ठाकुर, पूजा गौतम बनने वाली थी। पर यकीन करिए भगवान है वह मेरे लिए, क्योंकि किसी की बेटी को रखना और उसकी जिम्मेवारी उठाना सब की बात नहीं। उन्होंने अपनी बेटी समान मुझे प्यार किया और हम गौतम परिवार का हिस्सा बन गए। मेरी मां मुझे लेकर दिल्ली आ गई। पिताजी मुझे भरपूर प्यार करते। मेरे लिए फ्रॉक, खिलौने सब लेकर आते। धीरे धीरे मैं बड़ी होने लगी, और निखरने लगी। सुंदर व्यक्तित्व, लालिमा मुख। हिमाचल का उबटन, जो मैं वहां जन्म लिए ही आई थी साथ। जब मैं दसवीं कक्षा में थी, मेरे मुंह बोले चाचा की नज़र मुझ पर पड़ी। सबको मालूम था ये हमारी नहीं है। वो पास बुलाते, बैठाते और सहलाते। मैं चीज़ों को समझने लगी थी, पर बोल नहीं पा रही थी किसी के आगे। जिससे उनके इरादे और मज़बूत होते रहे। एक दिन मैंने हारकर अपनी मां को बताया। उन्होंने मेरा मुंह बंद कर दिया और कहा – ” देखो! यह बात यहीं दबा दो, वरना ये मुझे घर से निकाल देंगे”। मैं अचंभित नज़रों से निहारे उन्हें देखती रही कि क्या सच में ये मेरी मां ही है। वो डर, झिझक पहली बार एक औरत के चेहरे पर देखी। उनकी दबती सांसों को बाखूबी मैंने महसूस किया। कुछ बाद पता चला मेरे चाचा विदेश चले गए है आगे की शिक्षा के लिए। मैं बहुत खुश थी, पर मेरे अंदर पुरुषों के लिए एक भय सा बना रहा। कॉलेज में मेरा एडमिशन हुआ और मैं कॉलेज से घर और घर से कॉलेज का रास्ता पकड़ती थी। न किसी से कोई बात न कोई किसी से मतलब। लड़कों को ये मेरा घमंड लगता था और वो रोज़ मुझे ” शर्मीली ” कहकर छींटाकशी करने लगे। एक लड़का तो मेरी सीट पर आकर बैठ गया और गाना गाने लगा। उस वक्त मैं बहुत घबरा गई थी कि मैं अपनी क्लास बीच में ही छोड़ कर भाग गई और घर आकर बहुत रोने लगी।
इन परिस्थितियों ने मेरे अंदर इतना मानसिक दबाव डाला था कि मैं पढ़ने में ज़्यादा अच्छी नहीं रही और 40 प्रतिशत से मैंने अपनी बी ए पूरी करी। मेरी मां फिर भी नहीं हारी, और उन्होंने बी. एड के एंट्रेंस टेस्ट में मुझे बिठा दिया। इग्नू से मैंने मास्टर्स करी क्योंकि इग्नू में बी ए के नंबर मायने नहीं रखते थे। जो लड़की दो में दो मिलाना नहीं जानती थी, वह इतिहास में एम ए, बी. एड हो चुकी थी। मुझे इतना यकीन था कि कैसे धक्के से पढ़ाई मैंने पूरी कर ली है, पर नौकरी मुझे इन नंबर पर कहीं नहीं मिलेगी। मैं 24 – 25 साल की हुई, तो सबको मेरी शादी की चिंता सताने लगी। दिल्ली के ही चार्टर्ड अकाउंटेंट का मुझे रिश्ता आया। मेरी शादी इंटरकास्ट हुई, पर हम दोनों के विचार कभी मिले नहीं। उन्हें पार्टी, घूमने का शौक और मैं चारदीवारी की चिड़िया, जिसे खामोशी, सुनसानियत, खुद से बातचीत और प्रकृति से प्रेम था। वो रोज़ मुझे मारते, पीटते और फिर सो जाते। मैं कमरे से बाहर निकलकर सबको हंसता चेहरा दिखाती। मां को यही कहती मैं खुश हूं। क्योंकि मां ने कहा था मैंने सहन किया है तुझे भी सहन करना है। एक दिन मेरे पति ने कहा यहां मुफ्त की रोटियां नहीं मिलेगी तोड़ने को, कुछ काम करो। मैं 40 प्रतिशत से पास होने वाली, भला कौन मुझे नौकरी पर रखता। झुग्गियों के पास एक छोटा सा स्कूल था। मैं वहां पूछने गई कि कोई रिक्तियां शेष हैं? उन्होंने एम ए, बी एड देख अपने स्कूल में 2000 में रख लिया। मेरी पहली नौकरी 2000 में, जो मैंने खुद पर होते जुल्मों सितम से पीछा छुड़ाने के लिए की। सुबह से दोपहर नौकरी करती, घर आकर सास की गालियां सुनती, रात को पति से पिटती और आवाज़ न खोलने की हिदायत मेरे माता पिता दे चुके थे। यह सब शायद मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था। एक दिन मुझे सीटीईटी का पता चला कि शिक्षक भर्ती के लिए सीटीईटी अनिवार्य है। मैंने अपने पति को कहा मुझे पैसे चाहिए कोचिंग के लिए। उन्होंने साफ इंकार कर दिया। मैंने 3 महीने की सैलरी बचा कर उन पैसों से सीटीईटी की कोचिंग ली। चूंकि मैं सारे पैसे घर देती थी, तो मैंने कह दिया वो गुम हो गए। जिसके लिए मुझे डंडों से पीटा गया। मुझे खुद पर घिन आने लगी थी, क्यूंकि मैं मूक बनी ये सब सहन कर रही थी। 2014 में मेरा सीटीईटी क्वालीफाई हो गया और मैं केंद्रीय विद्यालय में शिक्षिका लग गई। मुझे लगा अब सब सही हो जाएगा। परंतु 2013 में मेरे बेटे के होने के बाद, उन्होंने तलाख की अर्ज़ी डाल दी और ससुराल से निकाल दिया गया। गुजराल से मैं फिर वापिस गौतम के पड़ाव पर पहुंची हुई, अपने माता पिता के घर आ गई। परंतु इस बार मैं चुप नहीं थी। मैंने डोमेस्टिक वायलेंस का केस कर हाई कोर्ट तक उन्हें पहुंचाया और तीन साल तक बेल नहीं होने दी और जज के सामने यही बोला अब आज के बाद कोई औरत कुछ भी सहन नहीं करेगी। वो सिर उठाए जीएगी और सिर उठाए मरेगी। जज भी मेरी आंखों में वो अंगार देखे हतप्रभ दृष्टि से देखते रहे।
हिंदी में रुचि होने के कारण मैंने उसके बाद डबल मास्टर्स किया और आज एक ऊंचे महकमे में कार्यरत हूं। मेरे माता पिता को आज मुझ पर फक्र होता है कि मैं उनकी बेटी हूं। जिस पड़ाव में कभी मेरी मां थी आज मैं हूं। शायद उन्हें किसी पुरुष का साथ चाहिए था, जीवन में आगे बढ़ने के लिए क्योंकि उनकी बेटी उनके साथ थी। पर मेरे साथ पहले से एक पुरुष है और वो है मेरा अपना खून “मेरा बेटा”। पूजा पुरुषों के समाज में स्त्री बन सफल हुई है। इसलिए औरत जिस मोड़ मुड़ना चाहे गंगा की तरह बहने दो उसे, क्यूंकि नारी काली बन प्रलय लाने की भी सूचक मानी जाती है✍️
©पूजा गौतम