चालीस ग्राम का चातक
शिर्षक: चालीस ग्राम का चातक
चालीस ग्राम का चातक,
बस तरइ ही ताकत,
आग भुझे ना मिटती पीड़ा,
नभ ताकत जैसे रघुवीरा।
घन घोर मेघ में, जलता चातक,
भीतर भीतर मरता चातक,
बूँद बूँद बस नेह निहारत,
स्वाती जल पर, मरता चातक।
बड़े अदब से मेघा आना,
प्रीय जल तू मोहे लाना,
प्रेम मिलन को प्यासा है मन,
और उसे अब ना तड़पाना।
तृष्णा मन की मेघ मीटा दे,
शुष्कता जीवन मेघ खिला दे,
देर ना कर जल्दी तू आजा,
प्रेम सुधा अधरों को पिला जा।
निर्जला व्रत है, बरस का मेघा,
बस स्वाती को ये, जपता मेघा,
प्रेम तपष्या का फल दे दो,
मेघ मिलन अब हो जाने दो ।
मंजू शर्मा
सूरत गुजरात