माँ तो बस माँ है ममता का सागर

. कविता महिला दिवस पर विषेश
“माँ”
माँ तो बस माँ है
ममता का सागर है
वात्सल्य का आसमां है
माँ तो बस माँ है
मानुष की जननी है माँ
माँ मानवता की गरिमा है
माँ तो बस माँ है
मात पिता की छाया सुखद
उनके आंचल में रहता हूँ
मेरे संग रहते मात पिता
ऐसा कभी नहीं कहता हूँ
जीवन मेरा उनकी महिमा है
माँ तो बस माँ है
पालो पोसोगे
जब निज सन्तानों को
सब समझ जायोगे इक दिन
क्या क्या नहीं सहती माँ है
माँ तो बस माँ है
प्राण भले ही देता हो ईश्वर
लेकिन तन तो
सिर्फ देती माँ है
माँ तो बस माँ है
नौ माह तक उदर में रख कर
क्या क्या नहीं सहती माँ है
माँ तो बस माँ है
दर्द पेट का और बोझ तेरा
सब कुछ सहती
न कुछ कहती माँ है
माँ तो बस माँ है
प्रसव वेदना के
सुखद एहसासों से
देकर नव जीवन तुझको
मन विभोर हो जाती माँ है
माँ तो बस माँ है
शिशिर ग्रीष्म, वरषा में
सूखे में तुझे सुलाकर
गीले में सो जाती माँ है
माँ तो बस माँ है
तेरा चेहरा मलिन है या हर्षित
तेरा उदर है कितना खाली
एहसासों में पढ़ लेती माँ है
माँ तो बस माँ है
जिसके चरणों में तेरी जन्नत
तेरे सुख को करती है मिन्नत
काल से भी लड़ जाती माँ है
माँ तो बस माँ है
आओ हम माँ को नमन करें
निज जीवन को सुमन करें
धरा की देवी ,इकलौती माँ है
माँ तो बस माँ है
रचना कार — सुभाष चौरसिया हेम बाबू महोबा
स्वरचित मौलिक अप्रकाशित सर्वाधिकार सुरक्षित

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