बदलती सरकारें, चलते नारे

*बदलती सरकारें, चलते नारे*
*नफीस खान*

—पारदर्शिता और जवाबदेही पर सवाल।
—देश-प्रदेश में विकास की हकीकत।

प्रयागराज। लोकतांत्रिक हिंदुस्तान के स्वतंत्रता का 75 वर्ष पूरा हो गया लेकिन आज भी यक्ष सवाल आम हुन्दुस्तानी के जेहन में है कि क्या 1947 से 2022 तक की किसी भी सरकार के सभी वायदे पूरे हुए? यदि नही तो इस बिंदु की पारदर्शिता व जवाबदेही किसकी है?
जानकारी के अनुसार वरिष्ठ समाजसेवी अधिवक्ता आर के पाण्डेय ने मीडिया में वार्ता में बताया कि 75 वर्ष की लोकतांत्रिक व्यवस्था के बावजूद देश में अशिक्षा, असुरक्षा, भ्रष्टाचार, अपराध, भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी आदि का पूर्ववत होना इन 75 वर्षों के सभी सरकारों की नाकामी ही है। पीडब्ल्यूएस प्रमुख आर के पाण्डेय ने कहा कि 26 जनवरी 1950 को जब हमारा भारतीय सविधान पूर्ण रूप से लागू किया गया था तो उसमे लिखा था –
‘जनता काजनता के लिए, जनता के द्वारा’ मगर आज हम 75 वर्ष बीतने के बाद भी जन प्रतिनिधि जनता के द्वारा जरूर चुना जाता है मगर उसके कार्य व व्यवहार से लगता है कि वह जनता का व जनता के लिए नहीं बना है।
क्योंकि आज भी सरकारी कर्मचारी और इस देश की संसद को चलाने वाले नेता जनता की कुछ नहीं सोचते है। उदाहरण स्वरूप-
1. दस साल से देश में चल रही है- राष्ट्रीय कृषि विकास योजना. कहा गया था कि यह दूसरी हरित क्रांति कर देगी. पर आज भी अधिकतर किसानों को नहीं पता कि यह योजना चल भी रही है क्या ! किसान दुखी है।
2. दस साल से चल रहा है, माध्यमिक शिक्षा अभियान. कहा गया था कि सरकारी सेकेंडरी और सीनियर स्कूलों की दशा बदल जाएगी. कितनी बदली ?
3. दस साल से चल रहा है, राष्ट्रीय स्वास्थ्य अभियान. कहा गया था कि हर घर तक चिकित्सा और जांच की सुविधा पहुँच जाएगी. कितनी पहुंची ?
4. दस साल से कौशल विकास योजना चल रही है. पर नाम बदल बदलकर योजना चलाने से युवाओं की बेरोजगारी दूर नहीं हुई.
5. पेयजल और सड़क की योजनाएं कभी भी समय पर पूरी नहीं होती हैं.
6.दस साल में अरबों खर्च करके भी मीठे पानी को जनता तरस रही है तो अच्छी सड़कों पर कदम रखते ही टोल टैक्स देना होता है.
7. दस सालो से सूचना आयोग भी सुने पड़े है ओर जहां है तो अनुभवहीन जिनके प्रशिक्षण पर ही सवाल उठता रहता है।
बता दें कि हर चुनाव में महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और ग़रीबी के चार मुद्दे होते हैं. एक भी कम नहीं हुआ ! बल्कि इनकी मात्रा बढ़ी है. और जब ‘विकास’ का मुद्दा आया तो वह पैदा होने का नाम नहीं ले रहा है !
कुछ नहीं बदलता यहाँ. केवल सरकार में चेहरे बदलते हैं. नए राजा चुने जाते हैं. समाज को बांटकर, झूठ बोलकर, झांसों से चुनाव जीत जाते हैं. फिर सत्ता के लालची ये गिरोह और उनके दलाल जनता का शोषण करते हैं. और गुलाम जनता अपने ही कातिलों के गीत गाती है !
पारदर्शिता और जवाबदेही के बिना व्यवस्था सुचारू नहीं चल सकती है।

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