पर्यावरण संरक्षण

पर्यावरण संरक्षण

कहते पुराण सब धर्मग्रंथ
जीवन का था अति सरल पंथ।
सब मानव होते थे शतायु
जल- थल पावन थी शुद्ध वायु।।

चहुँ ओर बिखरती हरीतिमा
थे विटप यथा हरि की प्रतिमा।
धरती पर खिली वनस्पतियाँ
करती निरोग ज्यों औषधियाँ।।

तुलसी गिलोय तरु नीम आक
थे करते तन का दूर ताप।
वृक्षावलियाँ भू पर अनन्त
शोभायमान करती दिगन्त।।

वृक्षों से निकली प्राणवायु
करती जीवों को जो चिरायु।
जीवोच्छ्वासित विषतुल्य वायु
शोषित करते थे तरु शतायु।।

वन मे तरुवर सँग वन्यजीव
की छटा मनोहरकारी थी।
पर मानव की अति कुटिल दृष्टि
इस प्रकृति नियम पर भारी थी।।

पातन कर वन मे वृक्षों का
उपवन स्वरूप मे कर डाला।
नगराज हिमालय को देखो
सब दिखें नग्न पर्वतमाला।।

था कैसा घोर अनर्थ हुआ
दैवीय नियम सब व्यर्थ हुआ।
हिमनद पिघले,नदियाँ सूखीं
अर्णव तल मे उत्कर्ष हुआ।।

संकेत स्पस्ट प्रकृति का है
यह मनन हमें करना होगा।
रक्षा कर वन औ’जीवों की
विध्वंस रोकना ही होगा।।

भू,नभ,जल,वन संरक्षण हित
भौतिक विलासिता को त्यागो।
पर्वत,वन, सरिता, वसुंन्धरा
की रक्षा हित जागो जागो।।

है नहीं शेष कोई विकल्प
अब इस पथ पर बढ़ना होगा।
पर्वत,वन,जल औ’शुद्ध वायु
का संरक्षण करना होगा।।

यदि नहीं जगे अब भी तो यह
मानवता कब बच पाएगी।
रक्षा हित अपने प्रकृति स्वयं
मानव विनाश पर आएगी।।

देखेगी दुनिया वही घोर
विकराल प्रलय फिर एक बार।
इसलिए प्रकृति संरक्षण हित
जागो मन में कर लो विचार।।

भू पर, गिरि पर वृक्षारोपण
कर शीघ्र बढ़ाओ वनावरण।
हो जल संचय, हो पवन शुद्ध
हो स्वस्थ,स्वच्छ पर्यावरण।।

विनोद शंकर शुक्ल “विनोद”
गोमतीनगर,लखनऊ ,उत्तर प्रदेश

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