राखी

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राखी

भैय्या थै तुम तो मै मनाती
थी राखी शगुन एक
रूपया ही सही रीत निभाती थी मैं
पर अब न सावन सुख देता है,न सुंदर राखी
बस हर पल हर समय
समुन्दर भरा रहता है इन आंखों में
केवल एक दिन नहीं साल भर तुम्हारा चेहरा दिखता है
आंसू रोक लेती हूं पर कोर भीग जाती है बस बच्ची पूंछ
बैठती मां मामा कि याद आ लही है ,मैं मन मसोस कर
रह जाती हूं कि तुम
कहां हो रोज रात तारों में
अल सुबह फूलों में तुम्हें खोजती हूं,लाख जतन कर लूं
पर तुम्हें पा नहीं पाऊंगी जी तो रही हूं पर तुम्हें भूल न पाऊंगी, राखी कैसे खरीदूं
तस्वीर पर हार है हाथ नहीं मैं तुम्हें राखी कैसे बांध पाऊंगी, कांपते हाथों आखरी बार
हार पहनाया था तुम्हें
लिख तो रही हूं पर रोम रोम कांप
राहा है मेरा और सब कुछ किसी स्वप्न सा लग रहा
है,कांश ये एक स्वप्न ही होता ओ मेरे भैय्या तू मुझ से जुदा न होता।

अर्चना जोशी भोपाल मध्यप्रदेश यह कविता मेरे द्वारा स्वरचित है और पूर्णतः मौलिक

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