प्रीति में होकर दिवानी, बूँद में कुछ यूँ ढली है।
प्रीति में होकर दिवानी, बूँद में कुछ यूँ ढली है।
चूमने शतदल अधर को, झूमकर बरखा चली है।
केश अपने कर सुसज्जित, ओढ़कर धानी चुनर वह,
सज-सँवर कर नववधू-सी, लग रही कितनी भली है।
उठ रही खुश्बू धरा से, कर रही मन को सुगंधित,
गुदगुदाए हर हृदय को, वायु कितनी मनचली है।
अधखिले नन्हे परिंदे, घोंसलों में सुगबुगायें,
उपवनों में संग अलि के, मुस्कुराए हर कली है।
यह मिलन की ऋतु सखी री!, सच कहूँ अद्भुत अनूठी,
हर युवा मन श्याममय यूँ, राधिका अब हर लली है।
जब पड़ी रिमझिम फुहारें, हो गईं मादक दिशाएं,
प्रेम से परिपूर्ण प्रतिभा, रसमयी उर की गली है।
प्रतिभा गुप्ता
551क/120 भिलावां,
आलमबाग, लखनऊ