इस बेरी कोरोना ने प्राइवेट शिक्षकों की आर्थिक स्थिति को डसकर लगाया ग्रहण
*इस बेरी कोरोना ने प्राइवेट शिक्षकों की आर्थिक स्थिति को डसकर लगाया ग्रहण*
विजय साहू “पत्रकार”
इस बेरी कोरोना ने तबाह तो बहुत सारे उपक्रमों , संस्थाओं , कामगारों व नौकरीशुदा लोगों को किया है लेकिन सबसे ज्यादा मार पडी है निजी शिक्षण संस्थाओं में अध्यापनरत शिक्षकों एवं शैक्षणेत्तर कर्मचारियों को ।इस पेशे में कार्यरत शिक्षक व कर्मचारियों को डेढ साल में कोरोना ने दरबदर कर उन्हें कहीं का नहीं छोडा है । समाज की नई पीढी को तैयार करने का गुरुतर दायित्व लेने वाले शिक्षकों को सरकार , अभिभावक व शिक्षण संस्थाओं सभी ने बेगानों सा व्यवहार किया है । डेढ साल का कोरोना काल शिक्षकों के लिए पीडा काल बनकर रह गया है जिसके चलते तमाम शिक्षकों ने अध्यापन छोड पापी पेट और परिवार के वास्ते दूसरा काम धंधा पकड लिया है ।
शिक्षकों को शिक्षा के पांचों पायदानों की धुरी माना जाता है । क्योंकि शिक्षक ही संस्थान की पहचान बनाते हैं . देश में सरकारी शिक्षण संस्थानों से कहीं ज्यादा संख्या निजी शिक्षण संस्थाओं की है । सरकारी शिक्षण संस्थान लम्बे अरसे से शिक्षकों व शिक्षणेत्तर कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं । जिनमें स्टाफ की भारी कमी है । प्राइमरी स्कूलों में सहायक अध्यापकों से लेकर कालेजों में प्रवक्ताओं एवं विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों के साथ साथ मेडीकल कालेज , इंजीनियरिंग कालेज व अन्य तकनीकी शिक्षण संस्थान भी स्टाफ की भारी कमी से जूझ रहे हैं । सरकारी संस्थानों में निजी संस्थानों के मुकाबले नाम मात्र फीस होती है एवं उनकी प्रतिष्ठा भी होती है । जनप्रतिनिधि भी संसद , विधानसभाओं में सवाल नहीं उठाते हैं कि समुचित स्टाफ के बिना लम्बे अरसे तक शिक्षण संस्थानों को क्यों संचालित किया जा रहा है । देश भर में कोचिंग उद्योग को पंख लगने का बडा कारण शिक्षण संस्थानों में मानक के अनुरूप स्टाफ न होना है । अलबत्ता चुनाव आने के पहले जरूर शिक्षकों की भर्ती की प्रक्रिया शुरु हो जाती है । जो अकसर विवादों में घिरे बिना सम्पन्न नहीं होती है ।कोरोना काल में भी सरकारी शिक्षकों व कर्मचारियों को वेतन दिया गया है।
लेकिन निजी शिक्षण संस्थान ऐसा करने में विफल रहे हैं . शिक्षकों व शिक्षणेत्तर कर्मचारियों की तनख्वाह बच्चों के अभिभावकों से मिलने वाली स्कूल फीस से दी जाती है . निजी स्कूलों को भी नए सत्र की तैयारियां सत्र शुरु होने के 6 माह पहले से करनी पडती हैं . बच्चों के आवागमन के लिए स्कूल बसों की खरीद , संभावित छात्रों के अनुरूप कक्षाओं का निर्माण कार्य कराना , लायब्रेरी में किताबों , अलमारी व रैक की उपलब्धता व लैब्स के लिए उपकरण , केमीकल , कम्प्यूटर व उनके मैंटीनेंस में अच्छे खासे बजट की जरूरत होती है । ऐसी सभी निजी शिक्षण संस्थायें नए सत्र के शुरु होने के पहले आर्थिक तंगी से इसलिए जूझती हैं क्योंकि उन्हें बजट का बडा हिस्सा व्यवस्थाओं में खपाना पडता है । 2020 में मार्च में जब पहली बार लाॅकडाउन हुआ तब उस समय बच्चों की परीक्षायें चल रही थीं साथ ही सभी शिक्षण संस्थान नए सत्र की तैयारियों में व्यस्त थे । कोरोना के पहले ही तमाम स्कूल / कालेजों का प्रबंधन नए सत्र की व्यवस्थाओं व तैयारियों में पैसा लगा चुका था । इसी बीच लाकडाउन लग गया । ऐसे में सबसे ज्यादा शामत आई शिक्षकों और कर्मचारियों की । सीमित वेतन व ढेर सारी पारिवारिक जिम्मेदारियों में शिक्षक बेबस होकर रह गया ।शिक्षण संस्थानों का तर्क है कि जब तक सभी पेेरेन्टस बच्चों की फीस नहीं देंगे तब तक सभी को डेढ साल तक पूरा वेतन कैसे दिया जा सकता है ।हालात इतने विकट हैं कि शिक्षक गणों को वेतन के लिए गिडगिडाना पड रहा है । प्रिंसिपल , मैनेजर की चिरौरी करनी पड रही है । निजी शिक्षकों को इतना वेतन भी नहीं मिलता है कि उनके पास इतनी जमा पूंजी होगी कि वे डेढ साल तक बिना वेतन के परिवार चला सकें । तमाम शिक्षकों ने शिक्षक बने रहने के बजाए परिवार चलाने के लिए दूसरे पेशे को चुन लिया है ।
सबसे विकट समस्या तब आएगी जब शिक्षण संस्थाओं में सुचारू रूप से पढाई शुरु होगी । क्योंकि तब संस्थाओं को पता चलेगा कि असल में कितना टीचिंग और नाॅन टीचिंग स्टाफ संस्था से विदा ले चुका है ।
एक जमाना था जब शिक्षक को समाज में उच्च दर्जा प्राप्त था । लेकिन अब शिक्षकों का कद , पद व सम्मान पुराने दौर जैसा नहीं रहा । सरकारें समय समय पर संस्थाओं को उबारने के लिए तमाम बेलआउट पैकेज जारी करती हैं । यदि निजी संस्थानों से जुडे शिक्षकों के लिए सरकारें कुछ करतीं तो हालात इतने भयावह न होते । फिलहाल तो निजी शिक्षण संस्थानों में कार्यरत शिक्षक टीचिंग प्रोफेशन से जुडकर अपने को ठगा महसूस कर रहे हैं . सवाल यह है कि कोरोना काल के कटु अनुभव से क्या वे उबर पाएंगे ।