2005 की तुम्हारी तस्वीर देखकर उपजी पीड़ा

ऐसे ही एक शांत शाम में मोबाइल की गैलरी में तस्वीर देख रही थी… अचानक एक तस्वीर पर उंगली रुक गयी…. कई घटनाएं ऐसी होती हैं जिसका दर्द हमेशा वर्तमान हो उठता है….किसी के द्वारा नकारा जाना क्या गलत है? क्या किसी की ईच्छा या अनिच्छा कोई दूसरा निर्धारित करेगा….. ये घटना तो पुरानी है पर हर समय में वर्तमान है… इस लड़की का क्या कसूर था….. यही न…. जो इसको गलत लगा उसको गलत बोल दी… जो नहीं पसंद था उसके लिए नहीं कर दिया…… तड़प उठती हूं मैं…… क्या आपके सही होने की सजा इतनी भयानक है….. क्या इंसानियत मर चुकी है…… नीत्से की लाइन याद आती है “ईश्वर मर चुका है”…… लेकिन फिर तुम्हारा संघर्ष… तुम्हारे संघर्ष में साथ खड़े हुए लोग…… तुम्हारी मुस्कान मुझे जिंदा करती है….. और फिर मन कहता है ईश्वर है… इंसानियत है……. गैलरी में तुम्हारी पिक देख एक कविता बहने लगी मुझमें…. एक ही समय में दो मन:स्थिति की कविता…………

 

पीड़ाओं का पेंडुलम
……………………….

( 2005 की तुम्हारी तस्वीर देखकर उपजी पीड़ा)

पेंडुलम की तरह
निरंतर झूल रही है पीड़ा
कभी-कभी पूरा अस्तित्व
ज़ख्मी सा लगता है

कपड़े की तरह निथारती हूं
अलगनी पर सुखाती हूं
और देखती हूँ
छिले हुए अपने सुर्ख लाल ज़ख्म

पीड़ाओं के एक खारे समुन्दर में डूबने लगती हूं
मनुष्य की धरती पर
नहीं दिखता कोई मानव
मेरी लाल आँखों का खून जम चुका है…

न जाने ये कैसी भीड़ है
ये कौन सी प्रजाति है
सम्वेदना के शब्दकोश में
कोई नाम नहीं मिलता मुझे इन प्रजातियों का

ज़ख्म पर पड़ता ये खारा पानी
आह…!
पीड़ाओं का दरकता संसार

मैं लिपिबद्ध करना चाहती हूं
संसार की उन तमाम पीड़ाओं को
जिसने इंसानियत को रौंदा है…

रोज होती क्रूरतम घटनायें
मुझे हताश करती हैं
कभी चीख उठती हूं
मन करता है इन कीड़ों को आग लगा दूँ…..

छटपटा उठती हूं
इधर उधर झाँकती हूं
बेबस.. बदहवास..
सूर्यास्त की ढलती लालिमा की तरह
ईश्वर भी गायब हो गया……..!!

(2019 की तस्वीर देखकर जी उठती मेरी उम्मीद)

मैं लिपिबद्ध करना चाहती हूं
उन सम्वेदनाओं को
जो उस नमक के खारे समुन्दर से मुझे बचा ली
जिसने मेरे छिले जिस्म पर
प्रेम का मरहम लगाया…..

रोज ऐसे भी मिलते हैं लोग
जिन्हें देखकर मुस्कराने का दिल करता है
जब पढ़ती हूं
सम्वेदना और करुणा से भरी ख़बर
तो लगता है
अभी इंसानियत जिंदा है…..

अभी ईश्वर गूँगा नहीं हुआ है
अभी मंदिर घंटी में ओम की
झंकार जिंदा है….

पूजा पर आस्थाएं
प्रेम के जिंदा होने के सबूत हैं
प्रेम में करुणा ही तो पूजा है…

मैं फिर जी उठती हूं
ठीक वैसे ही
जैसे आँधियों से टूटने के बाद वृक्ष
जैसे इतने जलने के बाद
तुम और तुम्हारी तंदूरित मुस्कान
और अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचती हूं
कि ईश्वर है…..
इंसानियत अभी जिंदा है…….

सरिता अंजनी सरस
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

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