पेंडुलम के कंधे पर बैठा समय

पेंडुलम के कंधे पर बैठा समय
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पेंडुलम के कंधे पर इत्मीनान से बैठा वक्त
झूलता रहता है अपनी ही धुरी पर
सुबह-दोपहर-शाम-रात
स्थिर-अस्थिर के गणित को धत्ता बताते हुए

कैसा परिदृष्य उभरता होगा उस वक्त
जब सनातन चुप्पियों के बीच
आ बैठती होगी मौत वक्त के सिरहाने
क्या तब यह बलवान समय भी चीखता होगा
मौत के भय से ठीक हमारी ही तरह
और कर्ण के प्रश्नों से काँपती इस पृथ्वी की भाँति
यह भी धुँधला जाता होगा
और तब यह भी हो जाता होगा असमर्थ
अपने ही वजूद के बचाव में

कैसा महसूस करता होगा यह तब
कालिख से घिरी आँधियों के बीच…!
थर्राता हुआ-सा या किसी पहाड़-सा अचल
या फिर गिर जाता होगा कई कई बार
कहीं घुप्प अंधरे में पड़ी बिम्बों की किसी थाली में

तो क्या
समय के माथे पर झूलता यह बेबस पेंडुलम भी
हो जाता होगा बिलकुल असहाय
इस वक्त के हाथों …!

उधर उजाले की पीठ भी तो
अँधेरे की नोक से छलनी होती रही ही होगी
तभी तो अँधेरे के काले हस्ताक्षर
रह जाते हैं उजाले के वजूद पर
कई सदियों का कलंक लिए
किसी शिलालेख की तरह- अमिट

खैर…
बावजूद इन सबके
पेंडुलम के कंधे पर बैठा वक्त
झूल रहा है अपनी परिधि और केंद्र के बीच-
अपनी ही धुन में दुनिया से बेखबर
और यह ब्रह्मांड देख रहा है यह सब- अपलक

– सरिता अंजनी ‘सरस’
गोरखपुर, उत्तर प्रदेश

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