हे प्रभु, तुम यूंं मूक, मौन, शान्त, तृप्त, संतुष्ट, आनंदित व उन्मादित मगर क्यों?
हे प्रभु, तुम यूंं मूक, मौन, शान्त, तृप्त, संतुष्ट, आनंदित व उन्मादित मगर क्यों?
जबकि मेरा हृदय द्रवित, पल्लवित, झंझावित, तृषित व अप्रसन्न है।
सुना था भंवरे के गुंजन में तुम हो,
कोयल के संगीत में तुम हो,
काव्य के माधुर्य में तुम हो,
फूल की सुरभि में तुम हो,
मदिरा के उन्माद में तुम हो,
हृदय के प्रमाद में तुम हो।
फिर मेरे हृदय की वेदना में तुम क्यों?
मेरे अश्रु की अम्लता में तुम क्यों?
मेरे रूंद्धे कंठ के अनकहे शब्दों में तुम क्यों?
मेरी अपूर्ण अभिलाषा में तुम क्यों?
मेरे नयन के अधूरे स्वप्न में तुम क्यों?
मुझसे ही ये अन्याय क्यों?
मुझसे ही ऐसा भेद क्यों?
मुझमें ही ये भाव क्यों?
क्या मैं तुम्हारी उत्कृष्ट रचना नहीं?
क्या मैं तुम्हारी मौन करूणा नहीं?
क्या मैं इस पावन जीवन में तुम्हारी श्वास की प्रतीक नहीं?
नहीं तो न सही,
में तुम्हारे काव्य का माधुर्य न सही,
तुम्हारे फूल की सुरभि न सही,
कोयल का संगीत न सही,
भंवरे का गुंजन न सही,
हृदय का प्रमाद न सही,
मदिरा का उन्माद न सही,
सूर्य को प्राप्त करने को प्रयत्नशील दीया तो हूँ,
आँधियो में निरंतर मचलती लौ तो हूँँ,
चंद्रमा के छूने को आतुर हृदय का उमडता ज्वार तो हूँ,
और कुछ न सही,
रणभूमि में हर क्षण संघर्षरत तलवार तो हूँ जिसकी धार कुंठित होने के बजाय त्वरित व तेज हो रही है।
अनीता दहिया