खामोश हूँ, खामोश ही रहने दो मेरी इस खामोशी को

खामोश हूँ, खामोश ही रहने दो मेरी इस खामोशी को।

कैसे कोई समझेगा, मेरी इस खामोशी को।
तकलीफ कहूँ या सुकूँ कहूँ, अपनी इस खामोशी को।
जूनून कहूँ या पागलपन, अपनी इस खामोशी को।
सुनता नहीं है जहाँ में,अब कोई किसी की बातो को।
अभिमान हो चुका है खुद पर, अब इस अभिमानी मानव को।

खामोश हूँ, खामोश ही रहने दो मेरी इस खामोशी को।

लड़ते-झगड़ते हैं आपस में, लेके छोटी-छोटी बातों को।
शर्म लिहाज छोड़ दिया है, लाज न आती मानव को।
सोचा, बदलना मुश्किल है इनकी इस बुरी आदत को।
इसीलिए खुद को बदला और चुन लिया खामोशी को।

खामोश हूँ, खामोश ही रहने दो मेरी इस खामोशी को।

अगर बोल दो लोगों से, दूर करो तुम कमियों को।
कहते हैं, हम अच्छे हैं तुम देखो खुद की कमियों को।
अब मैंने भी छोड़ दिया, समझाना अभिमानी मानव को।
चुप रहना ही अच्छा है, जब ना समझे कोई बातों को।

खामोश हूँ, खामोश ही रहने दो मेरी इस खामोशी को
कैसे कोई समझेगा, मेरी इस खामोशी को।

अभिषेक शर्मा (सीधी मध्यप्रदेश)

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