मनहरण घनाक्षरी

*मनहरण घनाक्षरी*

शीर्षक – *झूठ*

झूठ की अभिव्यंजना,
विश्वास को है तोड़ती,
जोड़ती है स्वार्थ सभी, छोड़ ऊंची भावना।

 

झूठ के परिवेश में,
कालिख लगी हर्ष को,
विषाद के साम्राज्य को, ढो रही है कल्पना।

 

झूठ का आकाश काला,
दे रहा अंधेरा आज,
शांति को कैद करके, बो रहा दुर्भावना।

 

झूठ की भाषा अलग,
टूटता है सर्वनाम,
व्याकरण के हाथ में, है कहां संभावना।

 

झूठ की मासूमियत,
खींचती ईमान को भी,
बांधती है डोर से वो, है नहीं सत्साधना।

 

जन्मता है छल वहीं,
लोभ-सागर तारता,
दुर्गुणों का वास देखो, हो रही है वासना।

 

झूठ का समीकरण,
वशीकरण-मंत्र है,
सफल नहीं आज है, सत्य की आराधना।

 

झूठ-पथ से दूर हो,
ठान ले संकल्प आज,
सत्य-दीपक को जला, प्रेम से कर अर्चना।।

*प्रविंदु दुबे “चंचल”*
*सिंगरौली, मध्य प्रदेश*

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