धरती माँ

धरती माँ

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प्राण निछावर करके भी, यह कर्ज चुका न पाऊँ मैं।
मेरी इच्छा भी यही कहे, कि कर्जवान रह जाऊँ मैं। (मु०)

धरती माता तू धन्य सदा, माँ की गोदी सा आँगन है।
तेरी धूलि में लिपट-लिपट, पाया यूँ रूप सुहावन है।
तेरे ममत्व की मधुर कथा,
शब्दों में कह न पाऊँ मैं।(१)

तेरा आँचल इतना विशाल, सारा संसार समाया है।
तेरी ममता में भेद नहीं, सब ही ने भर-भर पाया है।
तू माँ है- तुझसे क्या मांगूँ,
बिन माँगे सब पा जाऊँ मैं।(२)

आवास दिया सब जीवों को, अगणित पेड़ों के कानन हैं।
कूप-नदी, पर्वत-सागर, झरनों का दृश्य सुहावन है।
सबका ही आश्रय इक तू है,
उनके संग महिमा गाऊँ मैं।(३)

स्वर्ग लोक के वासी भी, तुझको छूने ललचाते।
तेरी महानता के कवित्त, त्रैलोक्य में गाये जाते।
बार-बार बलि होकर तुझपे,
यहीं जनम फिर पाऊँ मैं।(४)

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लोकेंद्र कुम्भकार,
शाजापुर (मध्यप्रदेश)।

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