क्षितिज पटल को अपलक आकुल

गीत (16/12)

क्षितिज पटल को अपलक आकुल,
निरखें नैन चितेरे।
मत जाओ हे! तरणि तमोहर,
अंचल अवनि अँधेरे।।

तुम से ही गतिमान जगत है,
तुम सौंदर्य धरा के।
कालचक्र की तुम्ही प्रेरणा,
तुम उत्साह अरा के।।
सप्तवर्ण की अंशु- लेखनी,
नित नव चित्र उकेरे।
मत जाओ हे! तरणि तमोहर,
अंचल अवनि अँधेरे।।

इन नयनों की पढ़ कर पाती,
समझो मौन प्रवेदन।
शक्ति -स्रोत तुम ताप-तृषा भी,
तुम ही तिमिर प्रभेदन।।
असित शर्वरी पर अंकुश तव,
लाते तुम्ही सवेरे।
मत जाओ हे! तरणि तमोहर,
अंचल अवनि अँधेरे।।

रश्मिरथी के अश्व न ठहरे,
नित प्रदक्षिणा पूरी।
प्रतिदिन प्राची से पश्चिम तक,
नाप रहे पग दूरी।।
अस्ताचल कर गमन दिवाकर,
मधुरिम हास्य बिखेरे।
मत जाओ हे! तरणि तमोहर,
अंचल अवनि अँधेरे।।

_____ पुष्पा प्रांजलि

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