सागर से भी गहरा होता है स्त्री का सब्र

“स्त्री”
सागर से भी गहरा होता है
स्त्री का सब्र
जो रौंदता है कौंधता है
मसल कर फेंक देता है
कुलक्षणी कुलटा, वैश्या
कहने में न
आती जिसे शरम
हे पूज्या हे नारी
क्या है तेरी लाचारी
जो उसी दरिंदे पर
करती है तूं फक्र
मांग तेरी सिन्दूर उसका
नयनों की कोर तेरी
काजल उसका
अंगुली तेरी
छल्ला उसका
कोख तेरी और
लल्ला उसका
सोच जरा कर तूं चिंतन
डाल निज पर नजर
तेरे ही संबल हाथों से
निर्मित होता है जो घर
न ये तेरा है घर
न ये तेरा है दर
जब जी चाहे कह देता है
ये मिस्टर,
अच्छे से रहना हो रहो
नहीं तो निकलो बाहर
हे देवी हे अबला
सागर से भी ज्यादा गहरी है तूं
मन मसोस कर
करती है कितना सब्र
रचना कार — सुभाष चौरसिया हेम बाबू महोबा

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