ज्वालामुखी सी दहकती हूँ ब्रम्हांड के सारे दुखों को खुद में समाहित

* नारी शक्ति
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ज्वालामुखी सी दहकती हूँ ब्रम्हांड
के सारे दुखों को खुद में समाहित
करती हूँ आँसूओ के सैलाब को
समंदर बन आँखों मे भरती हूँ दर्द
के काँटो के बीच उलझी रहती हूँ।

हरपल चुभन भी सहती हूँ माँ बहू
बेटी बहन बन सृष्टि को सहेजती हूँ
अपनी व्यथा किसी से नही कहती
हूँ खुली किताब सी रहती हूँ फिर
भी सभी के समझ में नही आती हूँ।

फुर्सत के लम्हों में एहसासे अपनी
अक्सर लिखती हूँ लोगो की भीड़
में वजूद अपना ढूँढ़ती हूँ खुशी के
लिये सभी की सब-कुछ समर्पण
करती हूँ सिर्फ अपनापन चाहती हूँ।

दांव पर लगी रहती हैं आबरू मेरी
शिकारी बन जाल फैलाये रहते है
वहसी दरिंदे भी सुनी राहों में सहमी
डरी सी भी रहती हूं रात की तन्हाई
में अक्सर अंतर्मन से रोती रहती हूँ।

खामोशी में डूब चाहतों के सबेरे का
इंतजार करती हूँ उम्मीदों का दामन
थामे रहती हूँ खुले आसमाँ में पक्षियों
सी चहकना चाहती हूँ सूरज की तेज
बनकर दुनिया में चमकना चाहती हूं।

बादलों सी धीर गंभीरता का आवरण
ओढ़े कुछ कहना चाहती हूँ मेरी भी
ख्वाहिशे हैं जिसे पूरी करना चाहती हूँ
आत्मनिर्भर बन बंदिशों के घेरे से अब
निकलना चाहती हूँ उमंगे भी चाहती हूँ।।
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प्रेषक,
कवयित्री
सरोज कंसारी
नवापारा राजिम
जिला-रायपुर(छ.ग.)

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