मैं बन करके फुलबारी बाबुल आंगन को महकाऊंगी सोनचिड़ी बनके बाबुल की कोना कोना चहकाऊंगी

उदगार बेटी के………

मैं बन करके फुलबारी बाबुल आंगन को महकाऊंगी
सोनचिड़ी बनके बाबुल की कोना कोना चहकाऊंगी
हारे थके जब आओगे घर पै मन तुम्हारा बहलाऊंगी
दो जीने का अधिकार मुझे तुम्हारा सम्मान बढ़ाऊंगी

नन्हे नन्हे कदमों से चलके मैं कर दुंगी घर पावन तेरा
अन्तःस्थल से यदि स्नेह करोगे समृद्धि का होगा डेरा
पढ़ लिखकर तमस मिटाऊँ लाऊं जग में शुभ्र सवेरा
मेरे बिना कुछ भी नहीं माँ दादी भी तो हैं रूप ही मेरा

मां के लिए बनुँगी सहारा और कामों हाथ बंटाऊंगी
मेरे भाइयों की कलाई को मैं राखी बांध सजाऊंगी
कम न लड़कों से मेहनत कर अहसास दिलाऊंगी
जीवन की हर जटिलता में सबका साथ निभाऊंगी

मेरा अस्तित्व मिटाकर एक पल करो कल्पना जग की
कहाँ से आयेंगी बेटों को बहुएं क्या सूरत होगी भव की
मुझ जीवित की हत्या कर पूजा करते आदिशक्ति की
अन्तर्मन पीड़ित नहीं होता नहीं कांपती रूह मन की

मेरे तो सारे जीवन का ही केवल नर के लिए समर्पण
मन वाणी और कर्म सभी मैं करती हूं नर को अर्पण
तनया दारा भगिनी पितामही विविध रूप आकर्षण
क्यों नहीं मानता समाज यह नारी ही नर का दर्पण।

सत्यप्रकाश पाण्डेय

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