गाँव-गाँव खुल रहे शराब के ठेके: सरकार की योजनाबद्ध कमाई, जनता पर पड़ रही भारी मार
गाँव-गाँव खुल रहे शराब के ठेके: सरकार की योजनाबद्ध कमाई, जनता पर पड़ रही भारी मार
रिपोर्ट-लक्ष्मी कान्त सोनी
दिल्ली/देश के कोने-कोने में, खासकर ग्रामीण भारत में, शराब के ठेके योजनाबद्ध तरीके से खोले जा रहे हैं। सरकार खुद इन ठेकों की अनुमति दे रही है, और इसे राजस्व वृद्धि का मजबूत आधार बना चुकी है। जहाँ एक तरफ सरकार को शराब बिक्री से सीधा आर्थिक लाभ हो रहा है, वहीं दूसरी ओर समाज और परिवार इसके दुष्परिणाम झेल रहे हैं।
राजस्व की भूख में डूबा प्रशासन
सरकार ने शराब को राजस्व का प्रमुख स्रोत बना लिया है। आबकारी नीति के तहत हर गाँव तक शराब के ठेके पहुँचा दिए गए हैं। राज्य सरकारें खुलेआम लाइसेंस जारी कर रही हैं, और बिक्री पर टैक्स के माध्यम से अरबों रुपये का मुनाफा कमाया जा रहा है।
मुद्दा यह नहीं कि यह अवैध है, बल्कि यह है कि यह सब कुछ सरकार की सीधी निगरानी और संरक्षण में हो रहा है। जहाँ पहले शराब के खिलाफ अभियान चलते थे, वहीं अब सरकार खुद ही इसे बढ़ावा दे रही है।
दोहरा फायदा: मुनाफा भी और मामला भी
सरकार को शराब की बिक्री से होने वाले सीधे लाभ के अतिरिक्त अप्रत्यक्ष लाभ भी हो रहे हैं। शराब पीकर झगड़े, हिंसा, सड़क हादसे, घरेलू कलह जैसे मामलों में वृद्धि हुई है। ऐसे मामलों से पुलिस थानों, अदालतों और जुर्मानों के जरिये अतिरिक्त आय होती है।
थानों में रिपोर्ट, जमानत, चालान, कोर्ट फीस — इन सबके माध्यम से जनता का पैसा कानूनी प्रक्रिया में भी झोंका जा रहा है। यानी, सरकार हर स्तर पर कमाई कर रही है।
ग्रामीण जीवन पर कहर
गाँवों में खुलते ठेकों ने स्थानीय जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है। पहले जहाँ गाँवों में सुख-शांति थी, अब शराब के कारण परिवार बिखर रहे हैं। नशे के आदी होते जा रहे पुरुषों के कारण महिलाएँ और बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित हो रहे हैं।
मजदूर वर्ग की कमाई का बड़ा हिस्सा शराब में खत्म हो जाता है, जिससे कर्ज बढ़ रहा है और गरीबी चक्र गहरा होता जा रहा है।
स्वास्थ्य की बात करें तो, शराब के सेवन से जिगर, किडनी और अन्य बीमारियाँ गाँव-गाँव फैल रही हैं। इलाज पर होने वाला खर्च ग्रामीण परिवारों की कमर तोड़ रहा है।
सामाजिक ढाँचा हो रहा है कमजोर
शराब ने गाँवों की सामाजिक संरचना को भी कमजोर कर दिया है। युवा वर्ग रोजगार की तलाश छोड़ नशे के गर्त में डूब रहा है। चोरी, लूटपाट, घरेलू हिंसा जैसे अपराध बढ़ रहे हैं। सामाजिक कार्यक्रमों में भी विवाद और उपद्रव की घटनाएँ बढ़ गई हैं।
समाधान का रास्ता
सरकार यदि चाहे तो शराब नीति में बदलाव कर सकती है, लेकिन जब तक राजस्व बढ़ाने का मोह रहेगा, तब तक बदलाव की उम्मीद करना बेमानी है। पंचायतों, समाजसेवियों और जागरूक नागरिकों को इस विषय में आवाज उठानी होगी, ताकि सरकार पर दबाव बने और भविष्य की पीढ़ियों को इस विनाशकारी रास्ते से बचाया जा सके।
निष्कर्ष
यह स्पष्ट है कि सरकार ने जानबूझकर गाँव-गाँव में शराब के ठेके खुलवाए हैं, ताकि राजस्व बढ़े और प्रशासनिक मशीनरी को लाभ हो। परंतु, इसकी कीमत समाज को अपने स्वास्थ्य, शांति और भविष्य के साथ चुकानी पड़ रही है। अगर समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो यह लत पूरे समाज को खोखला कर देगी, और तब पछताने के सिवा कुछ नहीं बचेगा।